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Fragrance of the Himalayas

We go to the mountains. We come back to cities. A part of us remains in the mountains. In my blog ‘Fragrance of the Himalayas’, I write poems that create images of romance, love, desires, loss, wait, longing,..all set up in the mountains and nature. If it brings to you the fragrance of the Himalayas, I am happy (let me know by hitting a like or comment or share with a friend who loves mountains). Thanks for visiting.

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कितनी ही बार कितने ही सरोवरों पर

कितनी ही बार आकाश को पल्लू बनाकर मैंने
तुम्हें ओडते हुए देखना था
तुम्हारी अलकाओं में तारक-पुँजो को उलझते हुए
तुम्हारी भौओं में द्विज के चाँद को डगमगाते हुए गिरकर
तुम्हारी नथुनी में अटकते हुए देखना था
तुम्हारे गालों पर हाथ रखकर
तुम्हारी स्वपनिल आँखों में अपने उनींदे नयनों की हजारों ख्वाइशों को उड़ेल देना था
तुम्हारे अधरों में अमृत घोलकर कोटि बार मृत्यु को जीत लेना था

कितनी ही बार कितने ही सरोवरों पर
मैंने तुम्हारी मुस्कान को प्रतिबिम्बित होते निहारना था
न जाने कितनी बार मैंने अपने अतृप्त होठों से
तुम्हारी हँसुलियों पे एकत्रित हुयी पावस की बूँदों को पीना था
मेरी कामनाओ ने उन्मुक्त पंछी बन तुम्हारे संग हर उड़ान भरनी थी
तुम्हारे कोमल भावों को औंस-कणों सा उँगलियों से उठाकर बादलों में भरना था
फिर सावन में जब मेघ उन भावों को पुनाह धरा पर बरसाते
मैंने अपने प्रेम को कोटि प्राणों में सृजन होते हुए देखना था — कवि

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मैं सपनों में जंगलों भटकता रहता हूँ

सँध्या वेला में, एक वन के बीचों-बीच चरागाह में बैठा हूँ
मंद-मंद बहती हवा में फूल हल्के-हल्के हिल रहे हैं
समेट रहे हैं अपनी कबाओं को
पँछी पँख फैलाये नीड़ में लौट रहे हैं
घाटी में हाईवे पर गाड़ियों ने बाँधनी शुरू कर दी है रोशनी की झालर
घुमक्कड़ों ने थककर लगा लिए अपने टैंट
साएं छोड़ गए उनका साथ, पहले धीमे-धीमे, फिर एकदम से
क्षितिज पर बादलों में सूरज की अन्तिम किरण खो रही है
संग-संग मेरे अंतरतम में भर रही है नीरवता
सुनाई दे रही है, दूर गाँव में गूंजती ढोलक की रुदन थाप
मेरे एकाकी हृदय में वह प्रहार कर रही है बारम्बार
गोधूलि गा रही है विरह के गीत जिन्हे सुनकर मेरी हृदय-वेदना अश्रुओं में बदल चली है
रात उतर आयी है न जाने कब और पर्वत भी अब रात के कुन्तलों में लिपट कर सोने वाले हैं
मैं भी जानता हूँ सो जाऊँगा, तुम्हारा इन्तजार करता, यहीं का यहीं, इस चरागाह के बीचों-बीच
जहाँ बँजर में खिले हैं कई सुन्दर पुष्प
कितनी ही बार कितने ही फूल दिए थे मैंने तुम्हें तोड़कर
हर बार फूल लेने पर आयी तुम्हारे चेहरे पे मुस्कान को देखने के लिए
आज तुम्हारी स्मृतियाँ धुँधली सी हो रही है
पर मुस्कान को याद कर जोर से धड़कता है मेरा दिल अब भी
वैसे ही जैसे धड़का था पहला फूल देती बार
तुम्हारे प्रेम में, अब भी मैं पँछी सा उड़ता हूँ आकाश में
तुम्हारे पत्र का इंतजार करता हुआ सो जाता हूँ
किन्तु, अब भी, मैं सपनों में जंगलों भटकता रहता हूँ
तुम्हारे दिल तक की राह पूछता हुआ
कोई फूल थमा देता है ऊँगली हर बार
संग-संग राह खोजता भटकता रहता है वो भी मेरे साथ
जब कभी होगी तुमसे मुलाकात
अपनी उँगलियों से महसूस करना
मेरे हाथों में सिमटे अनेक फूलों के इत्र को
मेरे हृदय में बसे स्थायी प्रेम को

—- कवि

मैं एक बार में ही सब जी लेना चाहता हूँ

अगर मैं एक कवि होता
तुम्हारे होंठो के मधु को
अपनी कविताओं के बिम्बों में भर देता
अगर मैं एक शिल्पकार होता
तुम्हारी आँखों में दिखते प्रेम-निर्झर से लेकर नीरवता
अपनी मूर्तियों के मुख पर सजा देता
अगर मैं एक संगीतकार होता तो
तुम्हारी मुस्कान की खनखनाहट से
विरह राग के आँसू पौंछ देता
अगर मैँ एक चित्रकार होता तो
तुम्हारे साथ बितायी उस साँझ को
अपनी तस्वीरों के रंगों में भर देता
अगर मुझे नृत्य में माहरत होती तो
तुम्हारे लिए मेरी हर भावना को
किसी नर्तकी सा मुद्राओं में ढाल देता

और अगर मैं एक यात्री होता तो
तुम्हारे हाथ थामने के एहसास को
एक टैटू में बिंधवा लेता

किन्तु मैं एक साधारण आदमी हूँ
मेरी कामनाएँ भी मुझ सी ही साधारण हैं
मैं तुम्हारे होंठो के मधु से मदहोश होकर
हर शाम उस पहाड़ी पर बैठना चाहता हूँ
तुम्हारे साँझ से रंग में अपने स्वप्नों का रंग घोलकर
प्रेम का एक नया रंग बनाना चाहता हूँ
तुम्हें बाँहों में भरकर
तुम्हारी मुस्कान के गुँजार को सुनता हुआ
मैं खुद को बार-बार भूल जाना चाहता हूँ
और जिस तरह मैं बिना डरे तुम्हारे समीप आ गया था
उसी तरह, तुम्हारी आँखों में दिखते प्रेम-निर्झर में हर बार
मैं निडर होकर उतर जाना चाहता हूँ
मुझमें तुमसा धैर्य नहीं कि मैं कल तक का इन्तजार करूँ
मैं एक बार में ही सब जी लेना चाहता हूँ . … कवि

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सह्याद्री-2

पंचगनी जाती सड़क
साथ साथ पलाश के फूल, फूल रहे हैं
पहाड़ियों में सूखी घास है
जो डूबते सूरज की लाल किरणों में सुनहरी ओड़नी सी लग रही है
धीमी धीमी बह रही सुस्ताती सी पवन
सह्याद्री की सुगन्धि से सुरभित हुआ मन
सम्पूर्ण दृश्य एक माया सा लग रहा है
मेरे संग बैठी मुस्कुराती हुयी तुम हो
तुम्हारी सुरमयी आँखे जब कभी मिल जाती है मेरी आँखों से
मेरी कामनाएँ बढ़ जाती है एक हज़ार गुना और
तुम्हारे अधरों में रंगत है पलाश के फूलों की
तुममें स्थिरता है सह्याद्री की पहाड़ीयों जैसी
तुम्हें निहारकर मैं सिहरता हूँ
जैसे बूँदों के पड़ने से सरोवर
तुम्हारे यौवन में है महक मल्हार की
याकि ये कस्तूरी है मेरे प्रेम की
मैं एक झलक तुम्हें देखता हूँ
एक झलक सूरज को देखता हूँ
एक झलक पलाश के फूलों को
निहारता हूँ, तुम्हारे खूबसूरत होंठों को
उठ रही हैं ऊँची लपटें, ऊष्ण
व्याकुल हुआ जाता है मन
ये आग है क्या जंगल की
याकि मेरे हृदय को सूखी घास सा क्या जला रहे हैं
डूबता सूरज, पलाश और तुम –कवि

अन्नपूर्णा – 4

टैंट पर गिरती बारिश की बूँदें
सौंधी हवा में घुली अनिश्चतता
पाने की चाह खोने का डर
प्रकृति से एकरूप हुआ मन, शान्त
स्वास-स्वास में चढ़ता गहरा एकान्त

असीमित जान पड़ता कोहरे का समन्दर
फिर भी, मन पँछी एक बाँवरा सा
उड़ जाता है कोहरे की धुरी से पार
कोसों दूर, बहुत दूर
मुंबई का समंदर, सुन्दर

बारिश का बहाना लेकर
तुम्हारे छोटे से छाते के नीचे
मैं आ जाता था, भीगते रहते, चलते रहते
मेरी इंग्लिश के उच्चारण की तुम
करती रहती उधेड़-बुन

समन्दर किनारे की वो बारिश, घनघोर
उसमें मिल जाती, तुम्हारे होंठों की मिठास
स्वासों में रमते स्वास, मुक्त
समन्दर की लहरों सा हृदय में उठता उफान
हवा की साएं-साएं,
उड़ता छाता, गाते सावन का गान

टैंट के मुहाने से टपक रही है टिप-टिप बूँदें
मिटटी में बनकर धारा बह रही हैं यादें
समन्दर से मिलने को
………..
कॉफ़ी के प्याले में टिक टिक करती ऊँगली,
घड़ियों को गिनती
मैं पी रहा हूँ मिठास भरे कड़वे से ये घूँट ….. कवि

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अन्नपूर्णा – 2

पग-पग बढ़ते पाँव
थकान झेलते, लाँघते धुप-छाँव
आते, फिर पीछे छूट जाते कई गाँव
आहें भरते हुए लम्बे साँस
ऐंठते-हाँफते मँजिल आती पास
लेकिन जब तुम मिले अचानक से वन में
हर लिया तुमने मेरी थकान को
एक ही पल में, प्रिय खिलते बुराँस

सुन्दर लाल रंग ने भर दी रगों में एक नई उमंग
दिल में प्रेम की उठी आकाश तक ऊँची तरंग
मन कर रहा तुम्हारी ओट में ही डेरा डाल लूँ
पीठ तने पर टीकाकार, घाटियाँ, नदियाँ, सूर्यास्त,
रात और तारे, सबको निहार लूँ
फिर कल पहली किरण पड़े जो तुम पर
तब ही तुमसे अलविदा लूँ

तुम्हारा दिखना वन में अचानक से, भर गया देह में प्राण
तुम खिल रहे प्रिय बुरांस, ज्यों बुद्ध मुस्कुरा रहे पाकर निर्वाण

—कवि

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अन्नपूर्णा – 1

राह पर सरकाटी पत्त्थर
घुमक्कड़ों ने रखे सझाकर
देवदारों की सुंगन्धित बयार
बढ़ती साथ कदम मिलाकर
सुनती पैरों की आवाज़
नदी की कलकल

भावों के बादल उमड़ रहे अकस्मात
पहन संध्या का लालिम मन्द प्रकाश
गरज गरज गिर रहे एवलांच
जैसे आधी रात में पुकार रहा
पँछी निरंतर
चँचल, अशान्त

थपकी दे सुलाती दादी चाँदनी ओढ़ाकर
जागना पहली सवेल अंगड़ाई लेकर
सूर्योदय की स्वर्णिम किरणे
कितनी प्रिय लगती तुम्हारे मुख पर
युगों के पारावार में तुम
झूलती लाल सी पल्वित कोमल कोम्पल

दूध सा बरस रहा नव हिमपात
जैसे कुसुम झड़ते नभ की डाल
नीहार रही मुस्कराकर
ऊपर तुम अन्नपूर्णा
आँचल में मैं नवजात

तुम्हारी छाँव में खिल रहा मृदुल शिशु-हास

—कवि

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वो मुझमे रंग सा घुलता

उस से मैं लड़ता, उस से प्रेम करता
वो मेरे स्वप्नों के तट पर नित्य नाव ले उतरता
उस से मैं कहता कहानियाँ जीवन की, उसके हाथ चूमता
वो मेरे मन को हरता, कागज़ों में कविता बन उभरता
उसे गले लगाकर मिलता दिल को सुकून
काँधे में सिर रखता, गीत सुनाता, सफर सुहाता
वो मेरे रास्ते मशाल से रोशन करता, संग-संग चलता, साँसे भरता

आकाश में बिजलियों सा चमकता
बर्फीले तूफानों में पर्वतों सा सिहरता
वो मेरे आँगन को नित्य कलरव से भरता
चोट लगने पर लहू सा निकलता
औषधि सा जख्मों को भरता
वो मेरे हृदय में पतझड़ सा झड़ता, बसन्त सा खिलता
ठहरे पानी सा रमणीय, आकाश सा गहरा
वो मुझमे पावस की बूंदों सा पड़ता
लहर सा झूमता, रंग सा घुलता

—कवि

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ईज़हार

वो बोलती उसकी सियाही फ़ीकी सी है
दिखाने के लिए मेरे उल्टे हाथ पर
लकीरें खींच कर नदियों का मानचित्र सा बना देती
मैं कुछ कहता तब भी यही कहती
नदियों का मानचित्र है ये, याद कर लो
भूगोल की परीक्षा में काम आएगा
इन दिनों
इन लकीरों सी ही मेरे दिल में कई नदियाँ आ मिलती है
वो जब गाँव के नुक्कड़ में पहुंचती है
जब उसकी सखियाँ मेरे नाम से उसे छेड़ती हैं
और वो खिलखिला कर हँसती है
या तब जब वो अचानक मेरे सामने आकर खड़ी हो जाती है
मेरी आँखों में एकटक देखने लगती है
मन करता उस से कहूं
पहाड़ी पर चढ़ कर चाँद को छूने चलते हैं
सरोवर में मछलियों के संग तैरते हैं
या अपने डैने फैला कर उड़ते बाज़ की तरह
हिमालय से ऊपर उड़ते हैं

फिर एक दिन उसने मुझसे कहा
तुम्हारी सियाही बड़ी गाढ़ी है
मेरे दवात से सियाही लेकर मेरी कॉपी में लिखा
मैं तुमसे प्यार करती हूँ
सुनहरी चमकती नीली सियाही से वो बात लिख दी
जिसे कहते मेरे होंठ नीले पड़ जाते थे
उसके ईज़हार से उठी कम्कम्पी से
मैंने पूरा दवात ही पेज़ पर उल्टा दिया
आह! उसके गुलाबी गालों में छाई वो मुस्कान
एक क्षण में ही मेरे चेहरे में खिल गयी

तुम्हारी ही नदियों से बना सागर है ये
उसने मुझे कसकर गले लगा लिया

मैंने कागज़ सम्भाल कर रखा है.

—कवि

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सूखे पत्तों के नीचे छावं सी सोई हुई

मटमैली सी सुनहरी सी
सहाद्रि की फाल्गुनी घास
ओढ़े हुए यौवन धूप का
वनतृणों में बसी एक रहस्य भरी मनोहर सृष्टि
हो रहा कीटों के आदि-गीतों का गुंजन
सुखी घास और नई पत्तियों की खुश्बू से महकती हवा
गुलमोहर की छाँव बैठा है एक हिरण का जोड़ा
सन्तोष से भरे हुए, सुस्ताते हुए छन्नी धूप सेंकते
झपकी टूटती है तो नयनों से भर लेते हैं प्रेम-अँजुलिया
सूरज की ओट ले देख रहे हैं उनको तारे
गोधूलि में लौट जाएंगे वो घर
आकाश के खालीपन को देंगे तारे भर
रात को जब तुम देखोगी उन्हें टिमटिमाते हुए
वो कह रहें होंगे तुमसे हिरण के जोड़े की प्रेम कहानी
अनगिनत जुबानी
तुम पढ़ना उनके लबों को
पंचगनी के टेबल-टॉप पर लेट कर
यह कहानी जो है
सहाद्रि के पर्णपाती वनों में पलाश सी खिली हुयी
सूखे पत्तों के नीचे छावं सी सोई हुई
कालजयी
सम्पूर्ण
——कवि

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दोपहर में देखा एक सपना

वो मेरे स्वपन में, सो रही थी
मैं उसके पास गया
उसके सर में हाथ फेरा
उसे लाड़ करने का सुकून
किसी रहस्यमयी तालाब को निहारने जैसा
वो जागी
मैं उसके लबों को चूमने के लिए
आगे हुआ
उसकी सख्ती से उसके होंठ
बहुत सूखे पड़ गए थे
और मेरे उसके इंतज़ार में
हलके से लबों को लबों से छुआ
उसके गालों के एक कोने में
मुस्कान की एक छाया सी दिखी
जो उसी रहस्यमयी तालाब में
पानी की एक बूँद सी विलीन हो गयी

उस बूँद को फिर से पाने के लिए मैं
तालाब को ढूंढने निकल पड़ा
भरी दोपहर में

…….. कवि

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