कितनी ही बार आकाश को पल्लू बनाकर मैंने
तुम्हें ओडते हुए देखना था
तुम्हारी अलकाओं में तारक-पुँजो को उलझते हुए
तुम्हारी भौओं में द्विज के चाँद को डगमगाते हुए गिरकर
तुम्हारी नथुनी में अटकते हुए देखना था
तुम्हारे गालों पर हाथ रखकर
तुम्हारी स्वपनिल आँखों में अपने उनींदे नयनों की हजारों ख्वाइशों को उड़ेल देना था
तुम्हारे अधरों में अमृत घोलकर कोटि बार मृत्यु को जीत लेना था
कितनी ही बार कितने ही सरोवरों पर
मैंने तुम्हारी मुस्कान को प्रतिबिम्बित होते निहारना था
न जाने कितनी बार मैंने अपने अतृप्त होठों से
तुम्हारी हँसुलियों पे एकत्रित हुयी पावस की बूँदों को पीना था
मेरी कामनाओ ने उन्मुक्त पंछी बन तुम्हारे संग हर उड़ान भरनी थी
तुम्हारे कोमल भावों को औंस-कणों सा उँगलियों से उठाकर बादलों में भरना था
फिर सावन में जब मेघ उन भावों को पुनाह धरा पर बरसाते
मैंने अपने प्रेम को कोटि प्राणों में सृजन होते हुए देखना था — कवि
©Copyrights
I am speechless by reading this poem..really very beautiful poem!
LikeLike
Aapki bhi koi kavita aapko jo ho aapko baahist ajeej, share kar sakte he… shukriya..
LikeLiked by 1 person
जी हा, अवश्य भेजूंगी।
LikeLike
Very nice poem
LikeLiked by 1 person
Ji Dhanyavaad!
LikeLiked by 1 person