पंचगनी जाती सड़क
साथ साथ पलाश के फूल, फूल रहे हैं
पहाड़ियों में सूखी घास है
जो डूबते सूरज की लाल किरणों में सुनहरी ओड़नी सी लग रही है
धीमी धीमी बह रही सुस्ताती सी पवन
सह्याद्री की सुगन्धि से सुरभित हुआ मन
सम्पूर्ण दृश्य एक माया सा लग रहा है
मेरे संग बैठी मुस्कुराती हुयी तुम हो
तुम्हारी सुरमयी आँखे जब कभी मिल जाती है मेरी आँखों से
मेरी कामनाएँ बढ़ जाती है एक हज़ार गुना और
तुम्हारे अधरों में रंगत है पलाश के फूलों की
तुममें स्थिरता है सह्याद्री की पहाड़ीयों जैसी
तुम्हें निहारकर मैं सिहरता हूँ
जैसे बूँदों के पड़ने से सरोवर
तुम्हारे यौवन में है महक मल्हार की
याकि ये कस्तूरी है मेरे प्रेम की
मैं एक झलक तुम्हें देखता हूँ
एक झलक सूरज को देखता हूँ
एक झलक पलाश के फूलों को
निहारता हूँ, तुम्हारे खूबसूरत होंठों को
उठ रही हैं ऊँची लपटें, ऊष्ण
व्याकुल हुआ जाता है मन
ये आग है क्या जंगल की
याकि मेरे हृदय को सूखी घास सा क्या जला रहे हैं
डूबता सूरज, पलाश और तुम –कवि