तुझमे दिखती मेरी परछाई
क्या असल है यह गहरायी
पर्वत-शिखर दिखते जो तुझमेँ
सत्तह में जो है चित्रित सब ये
मेघ-मण्डल जो तुझमें समाया
मेरे मन को जिसने लुभाया
सरोवर ! क्या सत्य है यह सब
जाल जो लहरों ने बिखेरा
कीटों का उन्मादित बसेरा
झींगुरो के अज़ल तान
पंछियों के व्याकुल गान
धीमी-धीमी चाहतें बढ़ती
साँसे किसी स्वप्न का ताना-बाना बुनती
सरोवर ! क्या मायाजाल है यह सब
कँचन सी बिखरी सूरज की लाली
सम्मोहित करती साँझ की देह काली
टिमटिमाते अविचल आकाश में तारे
नक्षत्र-चंद्र तेरे नयनों में झाँकते सारे
सुंगन्धित निशा का गूढ़ सँसार
आलिंगन में सिमटे लताओं के हार
सरोवर ! क्या निश्छल है यह सब …….. कवि
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