मैं सपनों में जंगलों भटकता रहता हूँ

सँध्या वेला में, एक वन के बीचों-बीच चरागाह में बैठा हूँ
मंद-मंद बहती हवा में फूल हल्के-हल्के हिल रहे हैं
समेट रहे हैं अपनी कबाओं को
पँछी पँख फैलाये नीड़ में लौट रहे हैं
घाटी में हाईवे पर गाड़ियों ने बाँधनी शुरू कर दी है रोशनी की झालर
घुमक्कड़ों ने थककर लगा लिए अपने टैंट
साएं छोड़ गए उनका साथ, पहले धीमे-धीमे, फिर एकदम से
क्षितिज पर बादलों में सूरज की अन्तिम किरण खो रही है
संग-संग मेरे अंतरतम में भर रही है नीरवता
सुनाई दे रही है, दूर गाँव में गूंजती ढोलक की रुदन थाप
मेरे एकाकी हृदय में वह प्रहार कर रही है बारम्बार
गोधूलि गा रही है विरह के गीत जिन्हे सुनकर मेरी हृदय-वेदना अश्रुओं में बदल चली है
रात उतर आयी है न जाने कब और पर्वत भी अब रात के कुन्तलों में लिपट कर सोने वाले हैं
मैं भी जानता हूँ सो जाऊँगा, तुम्हारा इन्तजार करता, यहीं का यहीं, इस चरागाह के बीचों-बीच
जहाँ बँजर में खिले हैं कई सुन्दर पुष्प
कितनी ही बार कितने ही फूल दिए थे मैंने तुम्हें तोड़कर
हर बार फूल लेने पर आयी तुम्हारे चेहरे पे मुस्कान को देखने के लिए
आज तुम्हारी स्मृतियाँ धुँधली सी हो रही है
पर मुस्कान को याद कर जोर से धड़कता है मेरा दिल अब भी
वैसे ही जैसे धड़का था पहला फूल देती बार
तुम्हारे प्रेम में, अब भी मैं पँछी सा उड़ता हूँ आकाश में
तुम्हारे पत्र का इंतजार करता हुआ सो जाता हूँ
किन्तु, अब भी, मैं सपनों में जंगलों भटकता रहता हूँ
तुम्हारे दिल तक की राह पूछता हुआ
कोई फूल थमा देता है ऊँगली हर बार
संग-संग राह खोजता भटकता रहता है वो भी मेरे साथ
जब कभी होगी तुमसे मुलाकात
अपनी उँगलियों से महसूस करना
मेरे हाथों में सिमटे अनेक फूलों के इत्र को
मेरे हृदय में बसे स्थायी प्रेम को

—- कवि

सह्याद्री-2

पंचगनी जाती सड़क
साथ साथ पलाश के फूल, फूल रहे हैं
पहाड़ियों में सूखी घास है
जो डूबते सूरज की लाल किरणों में सुनहरी ओड़नी सी लग रही है
धीमी धीमी बह रही सुस्ताती सी पवन
सह्याद्री की सुगन्धि से सुरभित हुआ मन
सम्पूर्ण दृश्य एक माया सा लग रहा है
मेरे संग बैठी मुस्कुराती हुयी तुम हो
तुम्हारी सुरमयी आँखे जब कभी मिल जाती है मेरी आँखों से
मेरी कामनाएँ बढ़ जाती है एक हज़ार गुना और
तुम्हारे अधरों में रंगत है पलाश के फूलों की
तुममें स्थिरता है सह्याद्री की पहाड़ीयों जैसी
तुम्हें निहारकर मैं सिहरता हूँ
जैसे बूँदों के पड़ने से सरोवर
तुम्हारे यौवन में है महक मल्हार की
याकि ये कस्तूरी है मेरे प्रेम की
मैं एक झलक तुम्हें देखता हूँ
एक झलक सूरज को देखता हूँ
एक झलक पलाश के फूलों को
निहारता हूँ, तुम्हारे खूबसूरत होंठों को
उठ रही हैं ऊँची लपटें, ऊष्ण
व्याकुल हुआ जाता है मन
ये आग है क्या जंगल की
याकि मेरे हृदय को सूखी घास सा क्या जला रहे हैं
डूबता सूरज, पलाश और तुम –कवि

अन्नपूर्णा – 4

टैंट पर गिरती बारिश की बूँदें
सौंधी हवा में घुली अनिश्चतता
पाने की चाह खोने का डर
प्रकृति से एकरूप हुआ मन, शान्त
स्वास-स्वास में चढ़ता गहरा एकान्त

असीमित जान पड़ता कोहरे का समन्दर
फिर भी, मन पँछी एक बाँवरा सा
उड़ जाता है कोहरे की धुरी से पार
कोसों दूर, बहुत दूर
मुंबई का समंदर, सुन्दर

बारिश का बहाना लेकर
तुम्हारे छोटे से छाते के नीचे
मैं आ जाता था, भीगते रहते, चलते रहते
मेरी इंग्लिश के उच्चारण की तुम
करती रहती उधेड़-बुन

समन्दर किनारे की वो बारिश, घनघोर
उसमें मिल जाती, तुम्हारे होंठों की मिठास
स्वासों में रमते स्वास, मुक्त
समन्दर की लहरों सा हृदय में उठता उफान
हवा की साएं-साएं,
उड़ता छाता, गाते सावन का गान

टैंट के मुहाने से टपक रही है टिप-टिप बूँदें
मिटटी में बनकर धारा बह रही हैं यादें
समन्दर से मिलने को
………..
कॉफ़ी के प्याले में टिक टिक करती ऊँगली,
घड़ियों को गिनती
मैं पी रहा हूँ मिठास भरे कड़वे से ये घूँट ….. कवि

©Copyrights

नदी (river)

नदी कोलाहल तो मुझमें भी है
सन्नाटा सुनाओ
नीरव से भर दो अपनी उछलती लहरों को
व्याकुलता को किनारे कर दो
गूँज में पिरो दो ठहराव के मोती।

नदी किससे रूठी हो
क्यूँ हो गहरे नशे में
एकाकिनी हो क्यूँ बनी
देखो कुसुमों की मण्डली
इनके रंग कितने मोहक
हिम में खड़े अचल
खिल जाते है पाते ही धूप
तुम तो सदैव रहती रूद्र-रूप ;
विमुख हुआ मैं भी हूँ दर्पण से
तुम तो जीवन श्रृंगार सजाओ

इस एकान्त में, खड़ा मैं पुल पर
तुम्हारे उन्माद में खोजता परछाई अपनी
प्रत्यंचा जीवन-धनु की पड़ी है ढीली
मिलकर इसे कसाओ
खींच कर मेरे प्राणो को
गगन-भेदी बाण चलाओ
नदी
भग्नदूत बनने को हर मेघ आतुर
लेकिन है बाकि अब भी मुझमें स्वास
युद्ध मेरा अंतहीन यह
गिरियों को चीरती रणभेरी बजाओ
नदी!  तुम मेरा साहस बढ़ाओ ……. कवि

©Copyrights

हिरण से चंचल स्वपन

तुम्हे मैं किसी पीर की दरगाह में मांगी गयी
एक मनोकामना जैसे छोड़ आया था
सोती हुई को, बालों में गुलाब लगाकर
मैं भलीभांति अवगत था कि पीर
मनोकामना को पूरा करने के लिए वचनबद्ध नहीं होते
इसलिए मैं तुम्हें ढूँढने के लिए
अपने बलबूते पर निकल पड़ा हूँ
प्रकृति के लिए तुम्हारी चाह को देख कर
मुझे मालूम है तुम पर्वतों में ही कहीं मिलोगी
शायद तुम भी मुझे ढूंढती हुई
बारिश सी किसी दिशा में निकली होगी
मैं किसी पपीहे की टेर सा
एकरस होकर तुम्हे पुकारूंगा
काफल-पाक्यो पंछी की आवाज़ में आवाज़ मिलाऊँगा
जब हिमालय में फले काफल खाने के लिए
वो तुम्हें बुलाएगा उसी धैर्य के साथ निरंतर
जैसे किसी खड्ड में पत्थर
पानी से धीरे-धीरे घिस जाते है

मेरी लालसाएं कणक का यौवन लेकर जवान होगीं
धान सी दलदल में भी टिकी रहेगी
गेहूँ की बालिया भूरी हो जाती है सूर्य की तपीश से
लेकिन उन्ही तीव्र किरणों को मेरी देह
तुम्हारे केशों की छाँव को याद कर झेल लेगी
मेरे मन के आँगन में तुम खिली रहोगी
किसी जंगल में चरागाहों के बीच में
कई बेनाम फूल ज्योँ खिले रहते हैं
मेरे प्रेम को बाड़ लगाकर बांधे रखूँगा
किसी किसान के प्रयत्न में ढलकर

तुम भी काफल खाने चले आना
तुम भी नदी सी बनकर मुझ पत्थर पर बहते रहना
तुम भी उस सुखद एहसास की कल्पना में बढ़ते रहना
जो चन्दन वृक्ष से सिमटकर किसी भुजंग को मिलता है
तुम्हारे केशों को सवारने के ख़ाब देखता मैं
अगर सो जाऊँ
जब मैं आँखे खोलूँ तो सच में ही
तुम्हारी काकुलों सवारंता मिलूँ
तुमसे मिलकर मेरी ख्वाइशें फिर से जाग जाएगी
जैसे पहली बारिश में छत्रक अँगड़ाई ले जागते हैं

तुम्हें लेकर मेरे स्वप्न किसी हिरण से चंचल हैं
लेकिन ये स्वपन अगर मात्र मृग-मरीचिका भी हो
तुम्हारे न मिलने पर भी
उसी मिठास से तुम्हे बुलाता रहूँगा
जैसे कोयल बुलाती रहती है
बसंत को – कवि

©Copyrights

वो बहुत देर तक चुप बैठी रहती है …

वो बहुत देर तक चुप बैठी रहती है
कभी-कभार ही कुछ लफ्ज़ वो कहती है
मैं काफ़ी दिनों से उसको जानता हूँ
अब भी लेकिन रत्ती-भर ही उसको पहचानता हूँ
क्योंकि वो बहुत देर तक चुप बैठी रहती है

आज वो बोलती रही बहुत देर
मैँ हैरान था कहीं पश्चिम से तो न हुयी आज सवेर
वो बोलती गयी
सबसे पहले दादी के गाँव के बारे में
मैंने उसकी झील सी आँखों को
एक बच्ची की व्यग्र आँखों में बसी
गाँव की रहस्य्मयी झील में बदलते देखा
बिसात सी बीछी इस झील में
दादी की कहानीयों का स्पर्श था
वो स्पर्श उसे सफ़ेद साड़ी में गुजरती काया
सर्द-गर्म हवाओं से बंद होते
टी-हाउस के दरवाज़े की खटक में
या किसी सनकी भूत के कदमों के निशानों
से सावधान करता था

वो कूएँ की मुंडेर से झांकते
अपनी आवाज़ की गूंज पर मचलते भाई को
संभल कर कूएँ से दूर ले जाती है
मंदिर में महाकाली की जिव्हा पे बहुत देर तक
हाथ फेर कर वो टीले में भाग जाती है
और दूर बहती नदी की पशाखा बन के बहने लगती है

मैं उसे कहना चाहता था
की आज वो काले पैराहन में
शाम सी खूबसूरत लग रही है
पर मैं उपमाओं में उलझा था
क्योंकि उसका पीला दुप्पटा
रात में चांदनी में दमकते सरसों
के फूलों सा लग रहा था
या हिमालय में दमकती पीली चांदनी सा
पर उसकी आंखे अब भी
उसी झील के न्यौते पर विचार कर रही थी
वो जलपरी सी झील में उतर गयी
और मैं बहूत देर किनारे पर उसका इंतज़ार करता रहा
वो बाहर  आयी और बैठ गयी
मैं कुछ सुनने की चाह से उसे निहारता रहा 
लेकिन
वो बहुत देर तक चुप बैठी रहती है
कभी-कभार ही कुछ लफ्ज़ वो कहती है
मैं काफ़ी दिनों से उसको जानता हूँ
अब भी लेकिन रत्ती-भर ही उसको पहचानता हूँ
क्योंकि वो बहुत देर तक चुप बैठी रहती है  ……. कवि

©Copyrights