एक ख्वाब सा (like a dream)

जब कभी तुम याद आते हो
तब, कुछ पल, जम जाते है बर्फ की तरह
देह सुन्न, रूह एक ख़ामोशी से सिहरती हुयी
मेरी आँखे नहीं कर पाती तोल-मोल
क्या खोया क्या पाया का
बस तुम्हारा चेहरा दीखता है
मुस्कुराते हुए एक ख्वाब सा
तुम्हारे छाती पर सर रखकर
मैं सुनना चाहता हूँ मेरे ख्वाबों की
मासुमियत भरी बातें
जो नाम के साथ नाम जोड़कर सोचते हैं
जैसे प्रेम पूरा हो गया
हाथ थाम कर बैठने को समझते हैं
सबसे खूबसूरत एहसास
जो फूलों से रत्ती-रत्ती मकरन्द लाकर
तुम्हारे लिए लिखी जा रही
किसी ग़ज़ल के छाते में शहद भरते है
संध्या के सूरज में टिमटिमाते सागर में
पूरी आकाशगंगा को देख लेते हैं
किन्तु नहीं सुलझा पाते एक बात
डुब्बे होतें हैं सोच में
कि क्षितिज में हीरे सा चमकता शुक्र तारा
क्यूँ लगता है कम सुन्दर
और तुम्हारी चाँदी की नथुनी क्यूँ लगती है बेहद प्यारी
मेरे ख्वाब जो चुपके से रख देते हैं
तुम्हारी हथेली में हर बार एक फूल
मेरे ख्वाबों को पता नहीं क्यूँ लगता है जताना
तुम्हें बार बार एक ही बात
कि मुझे तुमसे मोहब्बत है

काले बादल आएं हैं
अब बारिश होगी
मेरे पास छाता भी तो नहीं
भीगना पड़ेगा, मेरी मज़बूरी हैं
हाँ लेकिन, मेरी कमज़ोरी नहीं ……… कवि

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हिरण से चंचल स्वपन

तुम्हे मैं किसी पीर की दरगाह में मांगी गयी
एक मनोकामना जैसे छोड़ आया था
सोती हुई को, बालों में गुलाब लगाकर
मैं भलीभांति अवगत था कि पीर
मनोकामना को पूरा करने के लिए वचनबद्ध नहीं होते
इसलिए मैं तुम्हें ढूँढने के लिए
अपने बलबूते पर निकल पड़ा हूँ
प्रकृति के लिए तुम्हारी चाह को देख कर
मुझे मालूम है तुम पर्वतों में ही कहीं मिलोगी
शायद तुम भी मुझे ढूंढती हुई
बारिश सी किसी दिशा में निकली होगी
मैं किसी पपीहे की टेर सा
एकरस होकर तुम्हे पुकारूंगा
काफल-पाक्यो पंछी की आवाज़ में आवाज़ मिलाऊँगा
जब हिमालय में फले काफल खाने के लिए
वो तुम्हें बुलाएगा उसी धैर्य के साथ निरंतर
जैसे किसी खड्ड में पत्थर
पानी से धीरे-धीरे घिस जाते है

मेरी लालसाएं कणक का यौवन लेकर जवान होगीं
धान सी दलदल में भी टिकी रहेगी
गेहूँ की बालिया भूरी हो जाती है सूर्य की तपीश से
लेकिन उन्ही तीव्र किरणों को मेरी देह
तुम्हारे केशों की छाँव को याद कर झेल लेगी
मेरे मन के आँगन में तुम खिली रहोगी
किसी जंगल में चरागाहों के बीच में
कई बेनाम फूल ज्योँ खिले रहते हैं
मेरे प्रेम को बाड़ लगाकर बांधे रखूँगा
किसी किसान के प्रयत्न में ढलकर

तुम भी काफल खाने चले आना
तुम भी नदी सी बनकर मुझ पत्थर पर बहते रहना
तुम भी उस सुखद एहसास की कल्पना में बढ़ते रहना
जो चन्दन वृक्ष से सिमटकर किसी भुजंग को मिलता है
तुम्हारे केशों को सवारने के ख़ाब देखता मैं
अगर सो जाऊँ
जब मैं आँखे खोलूँ तो सच में ही
तुम्हारी काकुलों सवारंता मिलूँ
तुमसे मिलकर मेरी ख्वाइशें फिर से जाग जाएगी
जैसे पहली बारिश में छत्रक अँगड़ाई ले जागते हैं

तुम्हें लेकर मेरे स्वप्न किसी हिरण से चंचल हैं
लेकिन ये स्वपन अगर मात्र मृग-मरीचिका भी हो
तुम्हारे न मिलने पर भी
उसी मिठास से तुम्हे बुलाता रहूँगा
जैसे कोयल बुलाती रहती है
बसंत को – कवि

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उसके पास होगी जादुई छड़ी

खैर-पंछी अपने लम्बे पँखों के नीचे
छुपाकर रखता है एक जादुई डंडी पीछे
जिसको पा जाए बदल जाएगी किस्मत
पानी की एक बाल्टी लानी होगी झटपट
पानी में उसको डाल दे
किन्तु बचे एक मायाजाल से
वो रूप बदलकर बनेगी साँप
जो इस मिथक को लेगा भाँप
निडर होकर पकड़े साँप को और निकाले बाहर
सरगम गूंजेगी देवता बरसाएँगे आसमाँ से फूल
उसके पास होगी जादुई छड़ी
सब इच्छाएं पूरी करेगी, छोटी या बड़ी

मैं पीछे खैर के फिरता रहता
ख्वाइशें उँगलियों पे गिनता रहता
पाँव को जैसे खींचे जाती खैर की उड़ान
एक डाल से दूजी डाल
मन में डर के भी आते ख्याल
कहीं साँप बन मुझे काट गयी डंडी
पेड़ चढ़े अनेक
चिड़िया तक के घर भी आया देख
पर मिली नहीं कभी वो डंडी
फिर एक दिन छूटी गाँव की ही पगडण्डी
और मैं शहर चला आया

अब यूँ है कि तुम मुझसे बात नहीं करती
मुझे अब कभी अपनी आँखों में नहीं भरती
नहीं जताती कभी अब कि बैठोगी पर्वतों में
सरोवर के किनारे मेरे साथ
पर मेरा मन नहीं होता निराश
एक आखिरी उपाय है मेरे पास
एक बार फिर जाऊंगा गाँव
फिर दौडूंगा खैर के पीछे नंगे पाँव
जैसे दौड़ता था बच्चपन में
और जब लेकर आऊंगा जादुई छड़ी
भीड़ लगेगी देखने को लोगों की बड़ी
तुम भी तो शायद देखना चाहोगी
इस बहाने क्या खबर मेरे करीब आओगी
और आओगी भी क्यूँ नहीं भला
आखिर तुम्हें भी तो अच्छी लगती हैं
हैरी-पॉटर की जादुई कहानियाँ — कवि

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Image credit: long tail birds in the Himalayas

एक खूबसूरत सी कविता (A beautiful poem)

मैं एक खूबसूरत सी कविता लिखना चाहता हूँ 
पर मैं इसकी टोह नहीं पा रहा हूँ 
इसकी स्याही बहूत ही वाष्पशील लगती है 
शब्द उकरने से पहले ही छटपटाने लगते हैं 
बाज़ बन जाते हैं 
उड़कर हिमालय की ऊँची चोटी पर बैठ जाते हैं 
ये बाज़ मुझे अपनी पैनी नज़रों से घूरने लगते हैं 
मैं एक मूषक की तरह खुद को डरा पाकर 
खलिहानों में छिपने लगता हूँ। 
मैं लिखना चाहता हूँ 
तुम्हारी खड़ी की गयी दीवारों से बगावत कर 
तुम्हारे हाथ मेरे हाथों को थाम बैठे थे 
मैंने वो एहसास पाया था 
जो पहली बारिश में 
मरुभूमि को होता होगा 
तुहारी गर्दन पर मेरे होंठों का पहला स्पर्श 
तुम किसी मीन सी बिन नीर सी तड़प उठी थी 
तुम्हारे चुम्बनों ने मेरे गालों में जो मकरन्द छोड़ा 
तुम्हारे होठों के मधु की मिठास 
मेरे रोम-रोम को परिपूर्णता की पराकाष्ठा से भर गयी 
तुम्हारी छाती को चूमने पर तुम्हारी मोरनी सी आहें 
पके हुए काफल के रंग के तुम्हारे यौवन रत्न 
अश्व सी भागती धड़कनों में सवार हम दोनों 
भाग रहे थे पृथ्वी के धवल दुर्गम कोनों की तलाश में। 
मेरे बदन में फिरते तुम्हारे हाथ 
दक्षिण-दक्षिण बढ़ते हुए मेरे हाथ 
और मेरे सीने में चुभते तुम्हारे नाख़ून भी 
उस रोज़ प्रेम-रस में सनी 
कोई कविता ही लिखना चाहते थे 
मैं कबूलता हूँ तुम्हारे प्रेम के भरोसे 
मैं भी हर रात उसी कल्पवृक्ष तले सोता हूँ 
कल्पनाओं में तुम्हारी कमर में हाथ डालकर 
जिसके इर्द-गिर्द बहूत ठण्डी बर्फ़ है 
और हर बार चूमता हूँ तुम्हारे जिस्म के हर अंग को 
जिस वृक्ष के नीचे हम कम्बल ओढ़कर 
सांपों के जोड़े सा लिपटकर सोये थे 
पूरी रात डूबे रहे थे बुराँस के रस में 
लेकिन जैसा की तुम कहती हो 
ये कविता अधूरी है 
तुम्हारे बदन पर उँगलियाँ  फेरकर
अपनी भावनाओं की स्याही से
इस कविता की खूबसूरत तस्वीर को
पूरा करना चाहता हूँ
एक पन्ने में उतारकर जिसे मैं 
हिमालय की किसी चोटी में
अनंतकाल के लिए
किसी पत्थर के नीचे छूपा दूंगा
और वहीं उस बाज़ के समकक्ष खड़ा होकर
आँखों में आँखे डालकर
निडर होकर चीत्कार लगाऊंगा
कि मैं मेरी हुस्ना को प्रेम करने लगा हूँ
मेरे ह्रदय की प्रतिध्वनि
पर्वत शिखरों में गूँजते हिमस्खलनों सी
खूबसूरत सुनाई देगी ……. कवि

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