हिरण से चंचल स्वपन

तुम्हे मैं किसी पीर की दरगाह में मांगी गयी
एक मनोकामना जैसे छोड़ आया था
सोती हुई को, बालों में गुलाब लगाकर
मैं भलीभांति अवगत था कि पीर
मनोकामना को पूरा करने के लिए वचनबद्ध नहीं होते
इसलिए मैं तुम्हें ढूँढने के लिए
अपने बलबूते पर निकल पड़ा हूँ
प्रकृति के लिए तुम्हारी चाह को देख कर
मुझे मालूम है तुम पर्वतों में ही कहीं मिलोगी
शायद तुम भी मुझे ढूंढती हुई
बारिश सी किसी दिशा में निकली होगी
मैं किसी पपीहे की टेर सा
एकरस होकर तुम्हे पुकारूंगा
काफल-पाक्यो पंछी की आवाज़ में आवाज़ मिलाऊँगा
जब हिमालय में फले काफल खाने के लिए
वो तुम्हें बुलाएगा उसी धैर्य के साथ निरंतर
जैसे किसी खड्ड में पत्थर
पानी से धीरे-धीरे घिस जाते है

मेरी लालसाएं कणक का यौवन लेकर जवान होगीं
धान सी दलदल में भी टिकी रहेगी
गेहूँ की बालिया भूरी हो जाती है सूर्य की तपीश से
लेकिन उन्ही तीव्र किरणों को मेरी देह
तुम्हारे केशों की छाँव को याद कर झेल लेगी
मेरे मन के आँगन में तुम खिली रहोगी
किसी जंगल में चरागाहों के बीच में
कई बेनाम फूल ज्योँ खिले रहते हैं
मेरे प्रेम को बाड़ लगाकर बांधे रखूँगा
किसी किसान के प्रयत्न में ढलकर

तुम भी काफल खाने चले आना
तुम भी नदी सी बनकर मुझ पत्थर पर बहते रहना
तुम भी उस सुखद एहसास की कल्पना में बढ़ते रहना
जो चन्दन वृक्ष से सिमटकर किसी भुजंग को मिलता है
तुम्हारे केशों को सवारने के ख़ाब देखता मैं
अगर सो जाऊँ
जब मैं आँखे खोलूँ तो सच में ही
तुम्हारी काकुलों सवारंता मिलूँ
तुमसे मिलकर मेरी ख्वाइशें फिर से जाग जाएगी
जैसे पहली बारिश में छत्रक अँगड़ाई ले जागते हैं

तुम्हें लेकर मेरे स्वप्न किसी हिरण से चंचल हैं
लेकिन ये स्वपन अगर मात्र मृग-मरीचिका भी हो
तुम्हारे न मिलने पर भी
उसी मिठास से तुम्हे बुलाता रहूँगा
जैसे कोयल बुलाती रहती है
बसंत को – कवि

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